Bidat Kya hai

Bidat kya hai।

जो काम नबी ए अकरम सल्लल्ल्लाहु अलैहि वसल्लम और सहाबा ए किराम, ताब्यीन, तबे ताबयीन के ज़माने में किए जा सकते थे और उन्होंने नहीं किए उन कामों को दीन का काम समझ कर करना यानी उन पर सवाब की उम्मीद रखना (Bidat) बिदत कहलाता है।

आमतौर पर Bidat करने वाला इस गलतफहमी और धोखे में होता है कि उस काम को वह सुन्नत या मुस्तहब समझ कर रहा होता है लेकिन हकीकत में वह Bidat कर रहा होता है। जानबूझकर भी Bidat का करने वाले बहुत कम लोग होते हैं दिन और शरीयत का इल्म रखने वाले जानबूझकर भी करते नजर आते हैं क्योंकि शोहरत और दुनिया तलबी ने इल्म वालों को। इस तरह इन्हें शैतान का हमनवा बना दिया है मेरा अपना ख्याल है कि इस तरह कम इल्मी की वजह से Bidat फैलाने वाले लोग 95% और जानबूझकर करने वाले ज्यादा से ज्यादा 5 फीसद होंगे जानबूझकर गलतफहमी की वजह से करने वाले जब उस चीज को जान जाते हैं कि हम जिस काम को सवाब समझ कर रहे हैं उसकी वजह से आखिरत में पकड़ होगी तो वह धीरे-धीरे या अचानक Bidat छोड़कर सुन्नत पर अमल करने लगता हैं इसलिए हमें एक तरफ से Bidat करने वाले को बुरा भला नहीं कहना चाहिए हिदायत की दुआ और उसकी इस्लाह करनी चाहिए उसके लिए हमें कोई कदम उठाना चाहिए अच्छे अखलाक और अच्छी नियत से उसको सुन्नत की तरफ लाना चाहिए।

Bidat ki pahchaan kya hai


जो काम आप सल्लल्लाहो वाले वसल्लम सहाबा इकराम और ताबयीन ने ना किया हो उसे दीन की हैसियत से करना Bidat है

हर मोमिन को सुन्नत वल जमात की पैरवी करना वाजिब है सुन्नत इस तरीके को कहते हैं जिस पर आप सल्ला वाले वसल्लम चलते रहे और जमात उसे देते हैं जिस पर चारों खोल पाए राशि दिन यानी हजरत अबू बकर हजरत उमर हजरत उस्मान हजरत अली रजि अल्लाह ताला अनु मुझ में आई थी अपनी खिलाफत के जमाने में इतना किया यह लोग सीधी राह दिखाने वाले थे क्योंकि इन्हें सीधी राह दिखाई गई थी

Bidat की पहचान इस तरह से की जा सकती है

#1 मौके का बदल जाना जैसे दरूद शरीफ, अज़ान से पहले सलात ओ सलाम ,कब्र पर अज़ान ,नमाज के बाद मुसाफा

#2 किसी भी दिन को फिक्स कर लेना जैसे कब्र की जियारत का वक्त, उर्स,चालीसवां, तीजा वगेरह

#3 अकेले करने वाली चीज को जमाअत के साथ करना जैसे नाफिल नमाज जमात के साथ पढ़ना

#4 कैफियत बदला देना जैसे नमाज के बाद बुलंद आवाज से एक साथ दुआ मांगना,जहरी नमाज को सिररी और सिर्री को जहरी कर देना
ज़यीफ रिवायतों का सहारा लेना

खुलासा

#1 मौके का बदल जाना जो काम हुजूर अकरम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से साबित तो है मगर उसका महल बदल गया तो ऐसे कामों को बिदत कहेंगे और उनका करना जायज नहीं होगा जैसे दरूद शरीफ पढ़ना हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से साबित है मगर हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम दूसरे कायदे में पढ़ते थे आप पहले ही कायदे में पढ़ने लगे तो महल बदल गया इसलिए अब यह सुन्नत की तारीफ से निकलकर Bidat की तारीफ में आ गया। हां दूसरे कायदे में पढ़िए सुन्नत है

#2 कैफियत बदल जाए जैसे हुजूर सल्ललाहु अलैहि वसल्लम फज्र, इशा,मगरिब,जुमा,में आवाज के साथ किरत करते थे आप पस्त आवाज में पढ़ने लग जाए तो ये चीज कैफियत बदलने से Bidat हो गई।

#3 इज्तिमाई को इनफिरादी बना देना

यानि जो काम इकट्ठा होकर करना चाहिए और उसको इंफ्रा दी बना देना या इनफिरादी काम को इज्तिमायी बना लेना कभी भी दीन के किसी काम को करें तो सबूत पाकर करें, और सबूत भी बिल्कुल इस्लाम के मुताबिक हो मौक़ा महल, कैफियत, तादाद वगैरह में फर्क न पड़े फर्क के साथ करेगा तो Bidat में आ जाएगा और दिन का अच्छा खासा तमाशा बन जायेगा

जो जो काम दिन समझ कर किया जाए वह भी Bidat हो सकता है अगर दीन न समझा जाए तो Bidat नहीं होगा जरूरत या रस्म के लिहाज से होगा अगर जायज होगा तो इजाजत दी जाएगी अगर जायज नहीं होगा तो उसकी इजाजत इस्लाम ने नहीं होगी जैसे कर्ज़ का लेनदेन सूदी(ब्याज) है तो नाजायज होगा और अगर खैर सूदी (बिना ब्याज) है तो जायज़ समझा जाएगा मगर bidat और गैर Bidat की बहस यहां नहीं होगी। कोई भी काम हो उससे पहले देखा जाए कि दीन समझ कर किया जा रहा है अगर दीन समझ कर किया जाता है तो देखें कि यह काम हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सहाबा,या ताबई से साबित है या नही या इनके जमाने में हुआ है या किसी ऐसे किए हुए काम का जरिया है तो भी Bidat नहीं होगा जैसे प्रेस के जरिए किताबों का छपना उस जमाने में प्रेस ना होने का रिवाज नहीं था। अगर प्रेस वगैरा उस वक्त होते तो यकीनन प्रिंटर से छपाई हुआ करती किताबों की लिखाई तो थी इसलिए उस लिखावट को Bidat नहीं कह सकते, मदरसों की शानदार इमारतें नहीं हुआ करती थी मगर तालीम थी अब तालीम के लिए छोटी बड़ी इमारतों का बनवाना Bidat नहीं होगा।

Qabr ki ziyarat ka Tarika

इस्लाम ने कब्र की जियारत का सीधा और साफ तरीका बताया था कि कब्रिस्तान में दाखिल हो तो अस्सलामु अलैकुम या अहलल कुबूर अंतुम लना सलाफुन वनहनू लकुम खलफुन वा इन्ना इंशा अल्लाहु वा बीकुम ला हिकून कहें और जो कुछ पढ़ सके कुरान पढ़े और बख्श दें यहां तक की दुआएं मगफिरत भी करें इससे क़ब्र वालों को राहत होगी वह भी पढ़ने वाले के हक में दुआ करेंगे और दोनों तरफ के लोग फायदे में होंगे मगर इसके लिए कुरान से जुड़ा हुआ होना जरूरी है

Qabr ki ziyarat ka Maqsad

कब्र की जियारत का असल मकसद तो यही है कि उनके लिए दुआ ए मगफिरत करें या ईसाले सवाब करें यानी जो कुछ सूरत या आयते और दरूद शरीफ के साथ पढ़कर उनकी रूह को सवाब पहुंचाएं ताकि वह जियारत करने वाले के हक में दुआए खैर करें और इस तरह दोनों तरफ को फायदा पहुंचे और सबसे बड़ा फायदा यह है कि कब्रे देखकर अपनी मौत और आखिरत को याद करें और आखिरत की तैयारी करें यानी ऐसी जिंदगी बसर करने की कोशिश करे की इस कब्र में पहुंचकर आराम मिले शर्मिंदगी ना हो लेकिन अफसोस कि अक्सर कब्रों की जियारत करने वाले सारे मकसद को दूर रख कर अपने तरीके पर सिर्फ अपनी दुनिया के फायदे को सामने रखते हैं कोई बीमारी और कोई कर्ज़ से निजात चाहता है कोई मुकदमा में कामयाब होने के लिए वहां पर अपनी फरियाद कर रहा होता है वगैरा-वगैरा।

बिना किसी शक के कब्र की जियारत करने वाले न वाकिफ लोग जियारत करते वक्त उनके साथ भी वही आदाब का इस्तेमाल करती हैं जो सिर्फ अल्लाह तबारक व ताला के साथ मखसूस हैं। जैसे कोई सजदा कर रहा है, कोई तवाफ कर रहा है, कोई उनके तरफ हाथ उठाकर मांग रहा है, चाहे दिल से नहीं सही मगर अमली तौर पर साहिबे मजार ही को सब कुछ देने वाला मालिक कर रहा है, हालांकि यह सारी बातें ना जायज और हराम है और खुला शिर्क हैं। मगर आवाम इसको नहीं जानती और मजारात के मुजावर लोग सब कुछ जानते बुझते हुए भी उनको उससे मना नहीं करते क्योंकि उनकी दुनिया की आमदनी घट जाएगी अगर मुसलमान रहते हुए कोई किसी दरबार में हाजिर होकर फैज़ उठाना चाहे तो उठा सकता है लेकिन नमाज पढ़ते वक्त जो तरीका इस्तेमाल किए जाते हैं वह साहिबे मजार के साथ न किए जाएं जैसे नमाज में हाथ बांधकर खड़े होते हैं बिल्कुल इसी तरह हाथ बांधकर ना खड़े हो कुछ फर्क कर दें, इसी तरह रुकू, सजदा, हाथ उठा कर दुआ मांगना वगैरा अल्लाह के साथ खास है इनको अल्लाह के साथ खास रखें यहां अदब से ठहर कर फातिहा पढ़े आखिर में खड़े होकर अल्लाह से दुआ मांगे कि या अल्लाह जो कुछ मैंने पढ़ा है इसको हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तुफैल में कबूल फरमाए पहुंचा और हमारी नेक जायज मुरादे पूरी फरमा इस तरह दुआ करके और मुंह पर हाथ फेर ले।

साहिबे मजार को ये मकाम क्यों मिला।

जो लोग मजार के अंदर हैं उनकी बुजुर्गी का राज़ उनकी इबादत और अल्लाह से करीब होना है और अल्लाह और रसूल की इताअत है उनको जो रुतबा मकाम अल्लाह की तरफ से मिला हुआ है उसमें कमी बेशी नहीं कर सकता हमको ना उनकी शान के खिलाफ कोई हरकत करनी चाहिए ना उनकी तारीफ में ऐसे अल्फाज इस्तेमाल करनी चाहिए जिससे उनके पैगंबर या खुदा होने का अंदेशा होने लगे ऐसा करने से वो ना तो खुश होंगे ना ही उनका मर्तबा ही बढ़ेगा बल्कि हम गुनहगार हो जाएंगे ना हमारा कोई काम है कि दुनिया और आखिरत में बन पाएगा फिर बे फायदा गुनाह करने से क्या फायदा लिहाजा इन सब चीजों से बचना चाहिए। और हमे भी इन बुजुर्गों भी नक्शे कदम पर चल कर अपनी जिंदगियों को गुजरना चाहिए। जिस तरह उन्होंने अल्लाह के हुक्म को माना और अल्लाह के रसूल की फर्माबरदारी में अपनी जिंदगी को लगा दिया इसी तरह से हम सब को अल्लाह और रसूल के बताए हुए रास्ते पर चलना चाहिए।

अक्सर देखा गया है कि हमारे इल्म और ना अहल आवाम कब्रों की जाहिरी जेबों जीनत में दिन रात लगे रहते हैं चिराग जलाते हैं,कब्रों के उपर पंखे लगवाते है हालांकि इस चिराग से कब्र के अंदर रोशनी नहीं होती कब्र की रोशनी तो आयेगी कुरान की तिलावत दरूद शरीफ और खुदा के जिक्र से होती है मजारात पर अच्छे-अच्छे कपड़ों की चादर चढ़ाई जाती हैं हालांकि यह भी जाहिर जेबों जीनत है इससे अंदर की जीनत का कोई ताल्लुक नहीं है।

Mannat aur Nazar Maanna

मन्नत और नजर जो सिर्फ खुदा के लिए खास है वह अब मजारात का मुकद्दर बन चुकी है चढ़ावे नजर नियाज़ सब के सब औलिया ए किराम के लिए वही है जो अल्लाह के शयाने शान है। ना लोग समझते है ना दरगाह के मुजावर इन्हें समझने देते हैं। कभी अगर कोई मुजावर किसी आने वाले से कुछ रोक-टोक कर दे तो पहली फुर्सत में उसे दूसरा ठिकाना ढूंढने पर मजबूर कर दिया जाता है ट्रस्टी गरीब खुद नहीं समझता कि हकीकत क्या है और सच कौन है उसे तो सिर्फ यह देखना है कि इस साल का पिछले साल से गल्ले में कितना रुपया ज्यादा आया।

Bidat karne walon ke liye wayeed

हज़रत अबी मुगीरह रजि अल्लाहु ताला अनहु ने हज़रत इब्ने अब्बास रजि अल्लाहु ताला अनहु से रिवायत की है आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया अल्लाह ताला बिदत करने वालों के नेक अमल क़ुबूल नहीं करता जब तक वह बिदत करना छोड़ ना दें Bidat karne वालों के साथ दोस्ती रखने वाले के अमाल बर्बाद कर दिए जाते हैं और अल्लाह ताला इसके दिल से ईमान का नूर निकाल देता है।

मुनासिब यही है कि bidat karne walon के साथ मेलजोल ना रखा जाए ना इनके साथ बहस में पढ़े, ना ही इनको सलाम करे! इमाम अहमद बिन हंबल रहमतुल्ला अलैह फरमाते हैं कि Bidat करने वालों को सलाम करने वाला इस तरह है जैसे इनसे दोस्ती रखता है क्योंकि आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फरमाया आपस में सलाम को रिवाज दो ताकि तुम्हारे दरमियान मोहब्बत बढ़े।

मेरे अजीज भाइयों इस्लामी शरीयत वह है जो खुदा ताला ने अपने प्यारे रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के जरिए दुनिया वालों को पहुंचाई और रसूल अकरम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के तकरीबन 124000 सहाबा इकराम ने उनके बाद उनके शागिर्दो ने उन्हें सारी दुनिया को इस्लाम की तालीम सिखाई। लेकिन अफसोस कुछ हवा परस्तों ने अपनी राय से जो कुछ किया वह शरीयत और सुन्नत तो नहीं बाकी कुछ भी हो, अगर खुदा को राजी और रसूल को खुश रखना है तो दीन के हर अमल का सिरा रसूल तक पहुंचा दें। उसी में कामयाबी है। दुनिया और आखिरत की कामयाबी अल्लाह ने अपने दीन में रखी है।जब तक हम दीन के हर अमल को सुन्नते रसूल के मुताबिक़ नही करेंगे हम कामयाब नही हो सकते।

अल्लाह से दुआ है की अल्लाह हम सब को दीन की सही समझ और सुन्नत के मुताबिक़ जिंदगी गुजारने की तौफीक अता फरमाए। आमीन