Ulma e Haq Aur Ulma e Sooh Kon Hain 

Ulma e Haq Aur Ulma e Sooh Kon Hain ! उलमा ए हक़ और उलमा ए सू कौन है

आलिम के मायने होते हैं ‘इल्म वाला’ और आलिम की जमअ (Plural) होती है उ’लमा. इसलामी लिटरेचर में आलिम उसे कहते हैं जिसे दीन (क़ुरआन, हदीस, फ़िक़ह, तारीख़, तफ़सीर वग़ैरह) का इल्म हो. मगर हमारे यहाँ मशहूर है कि आलिम उसी को कहा जाएगा जो किसी मदरसे या दारुल उलूम से फ़ारिग़ हो, जिसके पास किसी मदरसे का सर्टिफ़िकेट हो. जबकि अगर किसी University से Passed Out Doctor, Engineer, MBA वग़ैरह को दीन का इल्म हासिल हो तो उसे भी आलिम ही कहा जाएगा। तो आज हम उलमा ए  हक़ और  उलमा ए सू के बारे में जानेंगे की Ulma e Haq Aur Ulma e Sooh Kon Hain 

 Ulma e Haq Ι उलमा ए हक़

बचपन से मस्जिद व मजलिस की तक़रीरों में उलमा के फ़ज़ाएल सुनते चले आ रहे हैं कि अल्लाह उलमा को बहुत पसंद करता है, अब नबियों का सिलसिला बंद हो गया मगर नबियों वाले काम उलमा सर अंजाम दे रहे हैं और अगर दीन सीखना है तो उलमा की सोहबत में रहा करो, उलमा से बदगुमानी व मुख़ालिफ़त का मतलब अपनी आख़िरत ख़राब करना वग़ैरह वग़ैरह. मगर जब इसलामी लिटरेचर्स का मुतालआ किया और इसलामी स्कॉलर्स की Speeches सुनीं तो पता चला कि उलमा के मुतअल्लिक़ सिर्फ़ एक पहलू का ही इल्म हुआ है.

 Ulma e Sooh Ι उलमा ए सू

दूसरा पहलू यह था कि ऐसे उलमा भी होते हैं जिन्हें अल्लाह नापसंद फ़रमाता है, क़ुरआन में कई जगह अल्लाह ने ऐसे उलमा की बुराईयों का ज़िक्र किया है, लोगों का माल नाहक़ खाने वाला कहा गया है, हक़ के रास्ते से रोकने वाला बताया गया है. हदीस में ऐसे उलमा को बदतरीन मख़लूक़ कहा गया है, फ़ितने पैदा करने वाला कहा गया है. जन्नत में जाने वाला पहला शख़्स अगर एक आलिम होगा तो जहन्नम में जाने वाला वाला भी पहला शख़्स एक आलिम ही होगा.

अब जब क़ुरआन व हदीस से दो तरह के उलमा का पता चल गया तो यह भी पता चला कि उलमा ने ही उलमा को दो groups में बाँटा है. एक होते हैं ‘उलमा-ए-हक़’ (जो सही सही दीन पेश करते हैं और अल्लाह व उसके रसूल ﷺ के बताए हुए तरीक़े पर अमल करते हुए हमेशा बातिल व ताग़ूत के मददे मुक़ाबिल रहते हैं)

और दूसरे होते हैंउलमा-ए-सू’ (जो हक़ को छुपाते हैं और अपनी मन मर्ज़ी का दीन पेश करते हैं और अल्लाह व रसूल ﷺ के बताए हुए तरीक़े के ख़िलाफ़ आख़िरत के बजाए दुनिया को ही ज़िंदगी का मक़सद बनाए होते हैं).

और एक तल्ख़ हक़ीक़त यह भी है कि हर मकतब-ए-फ़िक्र के लोग अपने उलमा को तो उलमा ए हक़ कहते हैं मगर दूसरे मकतबए फ़िक्र के उलमा को उलमा ए सू कहते हैं. क्योंकि अल्लाह व रसूल ﷺ के हुक्म के मुताबिक़ हमें उलमा ए हक़ की पैरवी करना है और उलमा ए सू के फ़ितनो से बचना है तो अब एक आम मुसलमान क्या करे? कैसे पहचाने कि कौन उलमा ए हक़ है और कौन उलमा ए सू है?

तो मेरे भाईयों इसलाम हिंदूइज़म की तरह कोई मज़हब नहीं है जहाँ मज़हब का इल्म सीखने और सिखाने का हक़ सिर्फ़ पंडितों को ही है. इसलाम तो वह दीन है जिसका इल्म हर मुसलमान मर्द व औरत को सीखने व सिखाने का हुक्म दिया गया है और न सीखने वाले की अल्लाह के यहाँ पकड़ भी होगी.

रसूलुल्लाह का फ़रमान है कि तुम में से बेहतरीन शख़्स वह है जो क़ुरआन को सीखे व उसे सिखाए. एक जगह फ़रमाया कि “तुम तक मेरी जानिब से अगर एक आयत ही पहुँची हो तो उसे भी दूसरों तक पहुँचाओ.”

Conclusion

हर मुसलमान को इस लाएक़ होना चाहिये कि वह अपने बच्चों को क़ुरआन पढ़ना सिखाए, हर मुसलमान को इस लाएक़ होना चाहिये कि वह नमाज़ में इमामत कर सके, अपने माँ-बाप की नमाज़े जनाज़ा पढ़ा सके, अपने बेटे और बेटी का निकाह पढ़ा सके. हम पैसे कमाने में तो बहुत दिमाग़ लगा लेते हैं तो दीन सीखने में दिमाग़ क्यों नहीं लगा सकते? Science, Maths, commerce, History, Geography वग़ैरह दुनिया के तमाम उलूम सीख सकते हैं तो क़ुरआन व हदीस का इल्म क्यों नहीं सीख सकते ? अगर हम हिंदी, अंग्रेज़ी, फ़्रेंच ज़ुबाने सीख सकते हैं तो हमें अरबी ज़ुबान और उसकी Grammar भी सीखना चाहिये ताकि हम क़ुरआन व हदीस की Basic knowledge हासिल कर सकें. फिर हम क़ुरआन हदीस के ज़रिये से उलमा ए हक़ और उलमा ए सू की भी पहचान कर सकते हैं.

अल्लाह हमें उलमा ए हक़ की पैरवी करने की और उलमा ए सू के फ़ितनो से बचने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए – आमीन

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